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The incarnation of Shri Maa is the day of the matter & conscience world

पवित्रा अग्रवाल

आगरा, 20 फरवरी (Arohanlive.com)  महर्षि अरविंद की सहयोगिनी एवं  पांडिचेरी  स्थित श्रीअरविंद आश्रम की संचालक श्रीमां का पृथ्वी पर अवतरण दिवस कल 21 फरवरी रविवार को मनाया जाएगा। श्री मां का अवतरण जड़-चेतन जगत के उत्कर्ष का दिवस है। श्रीमां के अवतरण दिवस पर उनके साधकों द्वारा कार्यक्रम आयोजित किए जाएंगे।

श्रीमां का जन्म 21 फरवरी 1878 को फ्रांस की राजधानी पेरिस में हुआ। पिता मोरिस अल्फासा व मां मातिल्डा ने इनका नाम मीरा रखा। पिता एक बैकर थे, जबकि मां आधुनिक विचारों की सुशिक्षत महिला थीं।

जन्म से ही असाधरण प्रतिभा की धनी

श्रीमां जन्म से ही असाधरण प्रतिभा की धनी रहीं। वे चार वर्ष की आयु में कुर्सी पर बैठने के बाद ध्यान में लीन हो जाती थीं। सात वर्ष की आयु में उन्होंने अपनी पढ़ाई शुरू की और अपनी कुशाग्र बुद्धि और प्रतिभा सम्पन्न होने के कारण वह विद्यालय में सबसे आगे रहती थी। हर समस्या का दृढ़ता के साथ मुकाबला करती थीं। मीरा के साहस, गंभीरता और निष्पक्षता के साथ अन्य गुणों का सहपाठी बड़ा सम्मान करते थे। समस्या होने पर उनसे समाधान कराते थे।

प्रकृति से बचपन से ही प्रेम

प्रकृति से शुरू से प्रेम करने वाली मीरा काफी संवेदनशील और एकांतप्रिय थीं। वह हमेशा अपने में खोये रहती थीं। बचपन से ही उनमें अलौकिक शक्तियां थीं। उन्होंने 14 वर्ष की आयु में संगीत और चित्रकला का प्रशिक्षण भी प्राप्त किया। ध्यान की अवस्था में उन्हें आध्यात्मिक अनुभूतियां होती थीं, उन्हें गुरु के रूप में श्रीकृष्ण का भान होता था। उन्होंने बीस वर्ष की आयु तक भगवान की दिव्य उपस्थिति से एकता प्राप्त कर ली थी। उन्होंने स्वामी विवेकानंद की पुस्तक राजयोग का भी अध्ययन किया, जिससे उन्हें साधना में मदद मिली।

मीरा गुह्याविद्या का प्रशिक्षण लेने के लिए वर्ष 1906 में अलजीरिया गईं। दो साल तक इस विद्या में पारंगत हो गईं। वह अपने शरीर से निकलकर सूक्ष्म शरीर द्वारा किसी भी लोक की यात्रा कर सकती थीं। बाद में वह अलजीरिया से पेरिस वापस लौट आईं।

यौगिक प्रतीक बनाकर दिया था

श्रीमां योगनी थी और उनके पति श्रीपालरिशार भी एक बड़े विद्वान, दर्शन, अध्यात्म और वेदांत के मर्मज्ञ थे। उनके पति के 1910 में  भारत जाने पर श्रीमां ने एक यौगिक प्रतीक बनाकर पति को दिया और कहा  कि भारत में बहुत से योगी रहते हैं। आप उनसे मिलना और इस प्रतीक का अर्थ पूछना। पति किसी काम के सिलसिले में पांडिचेरी पहुंचे, जहां श्रीअरविंद के बारे में जानकारी होने पर उनके पास पहुंचे और उनकी विश्वव्यापक दृष्टि से प्रभावित हुए। उन्होंने मां का दिया प्रतीक चिह्न प्रस्तुत किया और उसका अर्थ पूछा तो श्रीअरविंद मुस्करा उठे क्योंकि वह स्वयं उन्ही का प्रतीक था और उन्होंने तुरंत इसका उत्तर दे दिया। श्रीपालरिशार के पेरिस लौटने पर श्रीमां प्रतीक के अर्थ को देखकर बेहद प्रसन्न हुईं। इसके बाद उनके भारत आने की इच्छा और ज्यादा बढ़ गई।

भारत को कर्मभूमि के रूप में चुना

फ्रांस में जन्मी श्रीमां द्वारा भारत का अपनी कर्मभूमि के रूप में चयन करना शायद भगवान् द्वारा पर्व निर्धारित थ। इसलिए अपनी भारत यात्रा के समय 29 मार्च 1914 को को जब श्रीमां प्रथम बार श्रीअरविंद से मिलीं तभी श्रीमां का मन कह उठा कि श्रीअरविंद ही वह पुरुष हैं, जिन्हें वे सदैव अपने अंतर्दर्शन में देखती रही है और कृष्ण के नाम से सम्बोधित करती रही हैं। कालातांकर में यह स्वयंसिद्ध हुआ कि श्रीमां और श्रीअरविंद का मिलन ब्रह्मपुरुष और पराप्रकृति के मूलतत्वों का देह में अभूतपूर्व मिलन दिव्य रूपान्तर था, जो एक समय में समान प्रयोजन और लक्ष्य की पूर्ति के लिए पृथ्वी पर अवतरित हुए थे।

श्रीअरविंद ने आश्रम की जननी के रूप में प्रतिष्ठापित किया

श्रीमां इसके बाद श्रीअरविंद के कार्यों में सहयोगिनी बनीं। उन्होंने श्रीअरविंद से निवेदन किया कि वे अपने ज्ञान को दुनिया को बांटे। फलस्वरूप 15 अगस्त1914 से आर्य पत्रिका इंग्लिश और फ्रेंच भाषाओं में प्रकाशित हुई। द्वितीय विश्वयुद्ध शुरू होने पर वह 22 फरवरी 1915 को भारी मन से पेरिस रवाना हो गईं। श्रीमां करीब पांच वर्ष तक भारत से दूर अन्य स्थानों पर रहीं और आध्यामिक चेतना को फैलाती रहीं। इसके बाद वह फिर 24 अप्रैल 1920 को पांडिचेरी वापस लौटी और इसके बाद उन्होंने कभी भारत को नही छोड़ा। श्रीमां को 26 नवंबर 1926 को श्रीअरविंद ने आश्रम की जननी के रूप में प्रतिष्ठापित किया और अपनी अतिमानसिक साधना के लिए एकांतवास ले लिया। उन्होंने साधको से कहा कि अब श्रीमां के माध्यम से सबके भीतर काम करेंगे। श्रीमां के प्रयास से ही श्रीअरविंद आश्रम का जन्म हुआ।

श्रीमां ने विश्वकल्याण के अनेकों कार्य किए। श्री मां ने 17 नवंबर 1973 को अपने पार्थिव शरीर को छोड़ दिया, उनके शरीर को तीन दिन तक आश्रम के ध्यान कक्ष में रखा गया, जहां देश-विदेश के लाखों लोगों ने उनके अंतिम दर्शन किए। अंत में 20 नवंबर को श्रीमां के शरीर को समाधिस्थ कर दिया गया।

एक प्रदीप्त की लौ-सी वह जन्मी थीं

और निश्चय ही वह लौ पृथ्वी को करेगी देदीप्यमान…

पृथ्वी की अभिलाषा को पूर्ण करने हेतु और

सुनकर उनकी कतार पुकार

हमारे उच्च लोकों से नीचे उतरी एक महानता

एक बलशाली आगमन ने भूतल को किया सुषोभित

और फिर नूतन रूप से वहन किया श्वास के बोझ को

मिटा देने के लिए दुःख और अशुभ का आधिपत्य।

(श्रीअरविंद के महाकाव्य सावित्री की इन पंक्तियों में श्रीमां के जन्म और जीवन के उद्देश्य का सार्थक बयान है।)

श्रीमां की महिमा

-श्रीमां ने 1952 में एक विशाल भवन खरीदकर शिक्षा केंद्र स्थापना की।

-सितंबर 1955 में पं. जवाहरलाल नेहरू पांडिचेरी आश्रम आए और बेहद प्रभावित हुए

-इंदिरा गांधी भी यहां की शिक्षा व्यवस्था को देकर काफी प्रसन्न हुई थी।

-श्रीमां के सभी प्रशोन्नतर मातृवाणी के 17 खंडों में संग्रहीत हैं,जो श्रीअऱविंद साहित्य की अमूल्य निधिहैं।

-29 फरवरी 1956 को अतिमानसिक चेतना का धरती पर  अवतरण हुआ।

-श्रीमां ने 1964 में श्रीअरविंद सोसायटी की स्थापना की।

-श्रीमां ने 28 फरवरी 1968 को तमिलनाडु में ओरोविल नगर की स्थापना की। ओरोविल फ्रेंच शब्द है, जिसका अर्थ है श्रीअरविंद नगर, ऊषा नगरी।

-124 देशों के युवाओं ने ओरोविल के कमल कलश में अपने-अपने देशों की मिट्टी डालकर ध्वज लगाए।

-16 प्रमुख भाषाओं में ओरोविल का घोषणा पत्र पढ़ा गया।

21 फरवरी 1971 को मातृमंदिर की स्थापना की आधारशिला रखी।

-1972 में श्रीमां की दिव्य उपस्थिति में श्रीअरविंद की जन्मशताब्दी मनाई गई

 

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