आगरा. Arohanlive.com। प्रतिवर्ष फागुन की पूर्णमासी पर होने वाला होली पर्व ब्रज संस्कृति की मूल भावना प्रेम औऱ एकता की अभिव्यक्ति और जागरण का अवसर है। एक सामाजिक यज्ञ है, जिसके द्वारा प्रेम अग्नि को प्रज्जवलित किया जाता है। होलिका दहन उसका स्थूल (बाहरी) आवरण है। इस यज्ञ में सभी आहुति डालने और भाग लेने के अधिकारी हैं। चाहें वे किसी भी वर्ग, लिंग, अवस्था के हों- या किसी धर्म-संस्कृति के हों।
प्रेम की सभी धाराएं धरा पर अवतरित होती हैं
लेखक विश्वेश्वर दयाल अग्रवाल।
प्रेम की आराध्य शक्ति श्री राधा-कृष्ण को समर्पित है यह पर्व, जहां प्रेम की सभी धाराएं धरा पर अवतरित होती हैं। प्रेम का महत्व मानव जीवन में उतना ही है, जैसे मछली का जल से। प्रेम से ही मानव की प्यास और सृष्टि का विकास होता है। प्रेम से ही परिवारों और समाज का निर्माण। प्रेम शक्ति से ही इनको दीर्घायु और स्वास्थ्य सुरक्षित रहता है।
प्रेम-एकता बहुमूल्य पूंजी
प्रेम और एकता की शक्ति की यह बहुमूल्य पूंजी है, जिसका लगातार विकास होते रहना चाहिये क्योंकि यही एक साकारात्मक भावना है, जो सभी अन्धी प्रवृत्तियों पर अंकुश कर धरती पर शान्ति और मुक्ति पथ का निर्माण करती हैं।
एकता से झेले जा सकते हैं तूफान
प्रेम अनेकों रूपों वाली शक्ति है, परन्तु इसका कोई स्वरूप हो, यह अपने आप में विलक्षण होता है। सभी में एकता की भावना व्याप्त होती है, जिससे बड़े से बड़े तूफान झेले जा सकते हैं, गहरे घाव भर जाते हैं। सफर कट जाते हैं। ईश्वर मिल जाता है। विश्व चेतना चक्र में मुकुट के समान है यह शक्ति।
अंधे स्वार्थ आते हैं आड़े
परन्तु दुर्भाग्य का विषय है कि कितनी परवाह करते हैं इस पूंजी को बढ़ाने में? पारिवारिक और सामाजिक स्तर पर हमारे अन्धे स्वार्थों औऱ महत्वाकांझाओं में इसका महत्व पहचानने में आड़े आता है। हम यह समझते हैं कि बिना स्वार्थ और शोषण के हमें भौतिक सुखों की प्राप्ति नहीं हो सकती और हम एक कुलटा प्रवृत्ति में फंस जाते हैं औऱ नैतिकता नष्ट करते जाते हैं, जैसे कोई सती नारी अन्धी भोग कामना में अपने सतीत्व को ही दांव पर लगा देती है, जिसके परिणाम व्यक्ति और समाज को भुगतने पड़ते हैं।
नैतिक सिद्धांत दिए गए हैं भुला
यही कुल्टा प्रवृत्ति हमारे वर्तमान राष्ट्रीय संकट का प्रमुख कारण है। भारतीय राजनैतिक और सामाजिक नेतृत्व भटक गया है और उसने नैतिक मूल्यों को भुला दिया है औऱ समझता है कि राष्ट्रीय जीवन में सिद्धांतों और जिम्मेदारियों का कोई महत्व नहीं है और सत्ता भोग ही सच्ची उपलब्धि है।
समाज में राष्ट्रीय एकता का गंभीर संकट
भारत का वर्तमान संकट विभिन्न रोगों के रूप में प्रकट हो रहा है और बेकाबू है। हम भ्रष्टाचार, गरीबी, बेकारी, अभाव, महंगाई, कर्जदारी के चक्रव्यूह में पूरी तरह फंस गये हैं। निराशा और बेचैनी लगातार बढ़ रही है। समाज में राष्ट्रीय एकता का गंभीर संकट पैदा हो गया है। अफसरशाही लोकशाही पर हावी हो गई है। जनप्रतिनिधि नेतृत्व में खुले में कहने लगा है कि नौकरशाही पर उसका नियंत्रण नहीं है और अपनी जिम्मेदारी को पूरा करने में असमर्थ है। समाज के दुर्बल वर्ग के लिये प्रजातंत्र का मतलब मखौल बनकर रह गया है।
सच्चे नेतृत्व की आवश्यकता
भारत के अग्रणी राजनीतिक दल और नेता अपनी चमक खो चुके हैं। नेता और नीतियों का भारी संकट खड़ा है देश के सामने। क्या भारतीय समाज की एकता और विकास इन कारणों के रहते असुरक्षित हैं ? क्या जन असंतोष औऱ निराशा भारत को ले तो नहीं डूबेगी ?। इन परिस्थितियों से लड़ने और भारत को टूटने से बचाने के लिये सच्चे नेतृत्व की आवश्यकता है। जिसकी जड़ें नैतिकता में गहरी हों और सत्ता भोग की प्रवृत्ति के दबावों को सहकर राष्ट्रीय निर्माण के कार्यों में संलग्न हो सके। तृतीय कोटि के नेतृत्तव और कबाड़ी नीतियों से वर्तमान संकट से भारत को नहीं निकाला जा सकता है। (प्रस्तुति अम्बुज अग्रवाल)
Add comment