(पवित्रा अग्रवाल)
नये वर्ष का आगमन का एक ऐसी घटना है, जैसे प्रतिदिन का सूर्योदय और सूर्यास्त परन्तु सूर्य कभी अस्त नहीं होता है। धरा के आगे-पीछे रहता है। अस्त और उदय होने का सिर्फ अभिनय मात्र करता है, उसी तरह काल की धारा सदैव बहती रहती है और अनिगिनत वर्ष आते-जाते रहते हैं परन्तु हर वर्ष नवीनता का सिर्फ भ्रम पैदा करता है। कालधारा–कालरेखा एक आनन्द रेखा है। एक ऐसा राजपथ है, जिस पर परमेश्वर की रचना, यह अखिल जड़-चेतन जगत् की यात्रा कराता रहता है। स्थूल जगत् से सूक्षम जगत् की ओर श्रीअरिवंद दर्शन में परमेश्वर की सृष्टि जड़-चेतन का खेल है। रचना के आनन्द के लिये स्वयं ईश्वर अपनी आनन्द-काया से जड़-काया का निर्माण करता है। अर्थात अपनी ही चेतन स्वरूप से जड़ जगत् का निर्माण करता है और काल भगवान को जड़ जगत् किसी को विकास करने के लिए सौंप देता है, ताकि वह जड़ काया से निकल कर आनन्द काया में वापस आ जाए। अंधेरे और जड़ता से ऊभर कर अपने चेतन और आनन्द स्वरूप को प्राप्त कर सके।
जड़ को चेतन जगत् की ओर अग्रसर करना
यही है रहस्य, जिसे श्रीअरविंद अपनी चेतना में बार-बार प्रकट करते हैं और विकास मार्ग के मील के पत्थरों को अपनी मनोवैज्ञानिक भाषा में प्रकट करते हैं। कालधारा जलधारा के समान है, जिससे वह बहती है और एक गुरुतम शिला के अपने स्वरूप में रूपान्तर होती रहती है। धीरे-धीरे किसी दिन किसी खेत की उर्वरक मिट्टी बन जाती है, उसमें गतिशीलता पैदा होती जाती है। बढ़ते-बढ़ते चेतन शक्ति का संचार होने लगता है। काल की धारा का यही आदर्श है। जड़ को चेतन जगत् की ओर अग्रसर करते रहना, विकास पथ से आगे बढ़ना, जड़ता से निकाल कर अपने चेतन और आनन्द स्वरूप में वापसी के लिए तैयार कराना।
गतिशीलता से ही राष्ट्र का पुनर्निर्माण
जलधारा और कालधारा दोनों में जब तक जड़-चेतन संसार गतिशील रहता है, उसके रूपान्तर पुनर्निर्माण की गति बनी रहती है। परन्तु एक बार गति में रुकावट आने पर उसका विकास अवरुद्ध हो जाता है। कालधारा में आये अवरोध मानव विकासचक्र को गतिहीन बना देते हैं। यह अवरोधक हैं मानव में छिपी नाकारात्मक प्रवृत्तियां, विकारयुक्त जीवन प्रणाली, मलिन और दोषपूर्ण सामाजिक व्यवस्थाए, जो स्वाभिक विकास को मंद कर देती हैं और पूर्ण मानव और पूर्ण समाज के विकास में आड़े आती हैं। इन नाकारात्मक और जड़वादी प्रवृत्तियों और अवरोधकों से मुक्ति पाना ही व्यक्तिगत और सामाजिक तपस्या का मुख्य उद्देश्य होता है। सभी उच्चकोटि की तपस्याएं मानव को अराजकतावादी प्रवृत्तियों पर अंकुश, ऊपर उठाने के लिए प्रेरित करती है।
सर्वांगीण विकास के लिये आत्मबलिदान
सर्वोच्च कोटि का सामाजिक नेतृत्व भी इसी भावना से ओत-प्रोत होता है। मानव जाति का पूर्ण विकास ही उसके सोच और क्रिया का आधार होता है और समस्त शक्तियों को इन अंधे अवरोधों को हटाने में झोंक देता है। करोड़ों के सर्वांगीण विकास के लिए आत्म बलिदान करने के लिए तैयार रहता है। ऐसे आर्थिक, सामाजिक, राजनीतिक व्यवस्थाओं के निर्माण में लग जाते हैं, जिससे सभी को विकास के पथ पर दौड़ाया जा सके।
साकारात्मक जीवन प्रणाली आवश्यक
साकारात्मक जीवन प्रणाली अपनाए बिना कोई भी व्यक्ति और समाज पूर्ण स्वतंत्रता का सपना पूरा नहीं कर सकता। धरती पर रामराज्य की कल्पना साकार करने के लिए मानव जाति के नेतृत्व को अंधे स्वार्थों, अहंकारों, व्यवस्थाओं से लड़कर सार्वजनिक हित में व्यवस्थाओं को स्थापित करना अनिवार्य होगा। किसी भी देश का संस्थागत ढांचा देश के विकास में महत्वपूर्ण भूमिका निभाता है। नाकारात्मक ढांचे से सिर्फ अराजकताओं के पिटारे खुलते हैं। भूत-प्रेत इस धरती पर नृत्य करते हैं। सकारात्मक ढांचे से ही शांति, आनन्द का अवतरण धरती पर होता है। आज के नाकारात्मक और अराजकतावादी संदर्भ में साकारात्मक सोच और संस्कृति का विकास आज के भारत की तत्कालिक आवश्यकता है। भारतीय समाज दोषपूर्ण और विकृत सामाजिक व्यवस्था का बंदी बन गया है और चंद लोगों के स्वार्थ ही सर्वोच्च बन गए हैं।
नया वर्ष देश के परिवर्तन का समय
करोड़ों भारतीय नेतृत्व के संकट के कारण दरिद्रता, रोग, अभाव और तनावों में बंदी बन गए हैं। भगवान के सिवाये कोई नहीं है। कुछ लोग करोड़ों को भटका रहे हैं। भटकते नेतृत्व से ही मुक्ति पाना देश के विकास के अवरोध तत्वों को दूर करना ही काल भगवान की सच्ची सेवा होगी। आमूल्य परिवर्तन की आवश्यकता है। नेतृत्व व्यवस्था पर निश्चय ही यह समय अब आ गया है कि नया वर्ष देश के परिवर्तन का समय होगा। जर्जर राष्ट्र के पुनर्निमाण के लिए हमें सकारात्मक सबके हित में कार्य करने वाले नेतृत्व का सही चयन करना होगा। विकास की इस भावना को कालदेव अवश्य ही पूरा करेंगे। हमारी पूरी आशा है।
(साहित्यकार, कवि एवं दार्शनिक श्री विश्वेश्वर दयाल अग्रवाल ने इस लेख को वर्ष 1997 के पटाक्षेप और वर्ष 1998 के आगमन की पूर्व संध्या लिखा था। 24 वर्ष पूर्व लिखा गया उनका यह लेख आज के संदर्भों में भी समसामायिक है।)
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