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Dhara Bhai Udiyasi…

आगरा (arohanlive.com) । ग्रीष्म ऋतु है। चिलचिलाती धूप में  धरा भी उदास है। धरा की बेचैनी को शब्दों में पिरोकर शीतलता का अहसास कराया है कवि, साहित्यकार और विचारक रहे श्री विश्वेश्वर दयाल अग्रवाल ने अपनी रचना धरा भई उदियासी में

धरा भई उदियासी

धरा भई उदियासी

ग्रीष्म आई अंगना सोवै,

काटे रतियां तारे गिन-गिन,

चैन न तन-मन पावै।

रैन भई उदियासी,

चंदा आवै, याद दिलावै,

चमके प्यारी के गोरे मुखड़े पै,

खेले और मुसकावै।

ग्रीष्म आई धरा अंगना सोवै,

ढूंढे अपने साजन कूं,

हिरनी बन डोले तारे-तारे पै,

श्याम न अपना रूप दिखावै।

नैन चुरावे मन-भावन गोरी से,

राधा कैसे अपना दर्द बताये,

आबो श्याम सपनों के द्वारे,

रोम-रोम में आनि समाऔ।

ग्रीष्म आई अंगना सोवै,

आशा करे राधा, मोहन की,

कजरा डारे, बिन्दिया लगावे,

सुगन्ध चन्दन अंग लगावै।

स्वर्ण फूल पहने कानन,

नथनी नाक चढ़ावै,

पहने माला-मुतियन की,

हृदय चित्र डारै मोहन के।

आबो, श्याम चुपके से,

राधा संग रैन बिताओ,

आबो हर रैन सपने में,

चाहे सुबहु चले जावौ।

श्याम उबारो राधा कूं,

धरा पै विपदा भारी,

ग्रीष्म आई अंगना सोवै,

याद करे मन-मोहन की।

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